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कल्याण (1938), वर्ष 13 अंक 1 का आवरण पृष्ठ। इसी अंक में गीता प्रेस ने पहली बार रामचरितमानस छापी थी। रामचरितमानस के गुटका संस्करण का आवरण पृष्ठ, सुंदरकाण्ड का आवरण पृष्ठ

अथ रामचरितमानस प्रकाशन कथा: गीता प्रेस, गोरखपुर ने 1938 से रामचरितमानस का प्रकाशन शुरू किया

गोस्वामी तुलसीदास ने 16वीं सदी के अंत में रामचरितमानस की रचना की थी, जबकि वाल्मीकि ने करीब 3,000 साल पहले इसे संस्कृत में लिखा था। इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि रामचरितमानस के प्रकाशन के लिए गीता प्रेस ने कितना शोध और अध्ययन किया होगा
 |  Satyaagrah  |  Dharm / Sanskriti

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हिन्दी, अंग्रेजी संस्कृत के प्रकांड विद्वान

श्री चिम्मनलाल गोस्वामीजी (1900-1974) की हिन्दी, अंग्रेजी और संस्कृत तीनों भाषाओं पर जबरजस्त पकड़ थी।  1933 में भाईजी के व्यक्तित्व से आकृष्ट हो कर वह बीकानेर छोड़ कर गोरखपुर चले आए और 1934 से गीता प्रेस के अंग्रेजी मासिककल्याण-कल्पतरुके प्रथम सम्पादक हुए। साथ ही, वहकल्याणके काम में भी अपना सहयोग देते थे।  1939 से उनका नाम भीकल्याणमें सहायक सम्पादक के तौर पर छपने लगा। गोस्वामीजी के सम्पादकत्व मेंकल्याण-कल्पतरुके दस विशेषांक निकले-ईश्वरांक, गीतांक, वेदांतांक, श्रीकृष्णांक, भगवान्नमांक, धर्म-तत्व-अंक, योगांक, भक्त-अंक, श्री कृष्णलीला-अंक और गो-अंक। भाईजी के ब्रह्मलीन हो जाने पर हिन्दी मासिककल्याणके संपादकत्व का भार  भी गोस्वामीजी के कन्धों गया। उनके सम्पादकत्व मेंकल्याणके तीन विशेषांक निकले-श्रीरामांक, श्रीविष्णु-अंक और श्रीगणेशांक। गोस्वामीजी ने गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित रामचरितमानस का शुद्ध पाठ देने में तो महत्वपूर्ण भूमिका निभाई ही थी। उन्होंने वाल्मीकि रामायण (संस्कृत) का अंग्रेजी में अनुवाद के अलावा रामचरितमानस टीका, सम्पूर्ण भागवत और गीता तत्व विवेचनी पुस्तक का भी अंग्रेजी में अनुवाद किया। जब वह उसके उत्तरकाण्ड का एक तिहाई अनुवाद कर चुके थे, तभी वह बीमार पड़ गए और उनका शरीर शान्त हो गया। उनके कार्यकाल के दौरान गीता प्रेस से संस्कृत और अंग्रेजी में जितना साहित्य पत्रिका रूप में या पुस्तक रूप में छपता था, उसकी शुद्धता एवं प्रामाणिकता का अधिकांश श्रेय गोस्वामीजी के परिश्रम को है।

हनुमान प्रसाद पोद्दार पर 1992 में जारी डाक टिकट विष्णु दिगम्बर पलुस्कर पर 1973 में जारी डाक टिकट
हनुमान प्रसाद पोद्दार पर 1992 में जारी डाक टिकट विष्णु दिगम्बर पलुस्कर पर 1973 में जारी डाक टिकट

ढोल गवांर सूद्र पसु नारी

कल्याणके वर्तमान सम्पादक श्री राधेश्याम खेमकाजी से पिछले साल बातचीत के दौरान उनसे प्रश्न किया था, रामचरितमानस के सुन्दरकाण्ड की एक चौपाई में कहा गया है-‘ढोल गवांर सूद्र पसु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी।क्या आप इस बात से सहमत हैं? खेमकाजी का उत्तर था, ‘‘पूरे संदर्भ में देखें तो यह समुद्र का प्रलाप है, जो कि अनुकरणीय नहीं है। हमारे हिन्दू धर्म में नारी को बहुत ऊंचा और सम्मानित दर्जा दिया गया है। शास्त्रों में कहा गया है- ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:अर्थात् जहां नारी की पूजा होती है, वहां देवता निवास करते हैं। (देखें पाञ्चजन्य 28 अप्रैल, 2019)

आचार्य नन्ददुलारे बाजपेयी (1906-1967)

बाजपेयीजी कुछ समय तक इलाहाबाद में  ‘भारतअखबार के सम्पादक रहे। उन्होंने काशी नागरीप्रचारिणी सभा मेंसूरसागरका तथा बाद में गीता प्रेस में रामचरितमानस का सम्पादन किया। बाजपेयीजी कुछ समय तक काशी हिंदू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में अध्यापक तथा कई वर्षों तक सागर विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रहे। बाद में वह विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के कुलपति थे।

चिम्मनलाल गोस्वामी | आचार्य नन्ददुलारे बाजपेयी
 चिम्मनलाल गोस्वामी              |            आचार्य नन्ददुलारे बाजपेयी

शांतुन बिहारीजी द्विवेदीजी ने बाद में सन्यास ले लिया था और फिर वह स्वामी अखंडानन्द के नाम से जाने जाते थे। उस समय जो लोग गीता प्रेस के सम्पादकीय विभाग में काम करते थे, उनमें से कुछ के नाम पोद्दारजी ने ऊपर गिनाए हैं। ये सभी लोग पोद्दारजी के व्यक्तित्व से आकृष्ट होकर गीता प्रेस में आए थे, जीविका के लिए नहीं। इनमें से कुछ तो नि:शुल्क सेवा करते थे, कुछ को साधारण वेतन मिलता था, पर सभी नि:स्वार्थ भाव से रहते थे। पोद्दारजी सबको अपने परिवार का अंग समझते थे और उनकी आवश्यकताओं का पूरा ध्यान रखते थे। वे इन आश्रितों की व्यक्तिगत और पारिवारिक समस्याओं में भी पूरी दिलचस्पी लेते थे और आवश्यकतानुसार उनकी सहायता के लिए हमेशा तैयार रहते थे। अपनी पुस्तककल्याण पथ: निमार्ता और राही’ (पृष्ठ संख्या 222) में डॉ. भगवती प्रसाद सिंह लिखते हैं, ‘रामचरितमानस के प्रचार में गीता प्रेस का सर्वाधिक योगदान है। मानस के विभिन्न संस्करण प्रकाशित कर करोड़ों की संख्या में उसकी प्रतियां देश-विदेश पहुंचने का श्लाघनीय प्रयास उसके द्वारा हुआ है। मचरितमानस का प्रथम संस्करणकल्याणके विशेषांक के रूप में ही प्रकाशित हुआ। इसमें प्रामाणिक और शुद्ध पाठ देने की भरसक चेष्टा की गई है। मानसांक की एक विशिष्ट उपलब्धि इसके चित्र भी हैं। इसमें जितने रेखा चित्र एवं रंगीन चित्र दिये गए हैं, उतने शायद ही मानस के किसी संस्करण में हों। अब तक इस लोक विश्रुत ग्रन्थ (रामचरितमानस) के जितने भी संस्करण निकले हैं, गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित संस्करण उनमें सर्वोत्कृष्ट और समाहृत है। पोद्दारजी ने उसके पाठ सम्पादन में वैज्ञानिक प्रक्रिया के साथ ही साहित्यिक दृष्टि को भी यथोचित महत्व दिया है, उसकी विषद भूमिका इसका प्रमाण है।

 

मानसांक में मानस का हिन्दी भावार्थ भाईजी ने किया। बाद में इसका अंग्रेजी अनुवाद चिम्मनलाल गोस्वामीजी ने किया है। आज गीता प्रेस में रामचरितमानस का प्रकाशन नौ भाषाओं में हो रहा है- हिन्दी, अंग्रेजी, मराठी, बंगाली, गुजराती, उड़िया, तेलुगु, कन्नड़ और नेपाली। असमिया भाषा में भी इसे तैयार किया जा रहा है। पाठकों की सुविधा के लिए रामचरितमानस के सातों काण्डों को अलग-अलग पेपरबैक संस्करण में भी प्रकाशित किया गया है। देखने में आया है कि गीता प्रेस की कुछ पुस्तकें आनलाइन मंच पर मुद्र्रित मूल्य से अधिक में बिक रही हैं। शायद इसका कारण यह हो सकता है कि गीता प्रेस की पुस्तकों में अधिक कमीशन नहीं होता है। गीता प्रेस के अतिरिक्त एक संगठन है गीता सेवा ट्रस्ट। इस समय गीता प्रेस द्वारा 1700 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित की जाती हैं।

 
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