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सूर्य नमस्कार या यीशु नमस्कार? हिंदुओं का धर्मान्तरण करने के लिए चर्च और वेटिकन की विभिन्न चालबाजियों और मानसिक तथा मार्केटिंग
धर्मांतरण किसी ऐसे नए धर्म को अपनाने का कार्य है, जो धर्मांतरित हो रहे व्यक्ति के पिछले धर्म से भिन्न हो। दुनिया में स्वेच्छा से धर्मांतरित होने के कम ही किस्से सुनने को मिलते हैं। इतिहास में ईसाई और मुस्लिमों के धर्मयुद्ध के बारे में तो पढ़ने को मिलता है। इसे क्रूसेड और जिहाद कहा जाता है। यह सब कुछ धर्म के विस्तार के लिए ही हुआ था।
हिंदुओं का धर्मान्तरण करने के लिए चर्च और वेटिकन की विभिन्न चालबाजियों और मानसिक तथा मार्केटिंग तकनीकों के बारे में पहले भी कई बार लिखा जा चुका है। झाबुआ, डांग, बस्तर अथवा उड़ीसा के दूरदराज इलाकों में रहने वाले भोलेभाले ग्रामीणों व आदिवासियों को मूर्ख बनाकर “चर्च के गुर्गे” अक्सर धर्मांतरण करवाने में सफल रहते हैं. जो गरीब ग्रामीण इन चालबाजियों में नहीं फंसते हैं, उन्हें पैसा, चावल, कपड़े इत्यादि देकर ईसाई बनाने की कई घटनाएं सामने आती रहती हैं।
सूर्य ऊर्जा का सबसे बड़ा स्रोत है। इसी कारण प्राचीन ऋषि-मुनि सूर्य की पूजा करते थे। ‘सूर्य नमस्कार’ (Sun Salutation) का मतलब है सूर्य को नमन करना । इसे सर्वश्रेष्ठ योगासन भी कहा जाता है।
सूर्य नमस्कार एक महत्त्वपूर्ण योगाभ्यास है जिसका प्रारम्भ वैदिक काल में हुआ था। उस समय आध्यात्मिक चेतना के एक परम शक्तिशाली प्रतीक के रूप में सूर्योपासना की जाती थी। परंतु इस वैदिक सूर्य नमस्कार की प्रथा को इन्होंने येशु नमस्कार कहकर प्रचार शुरू कर दिया है।
कुछ ऐसा ही मामला हाल ही में सामने आया है. नीचे प्रस्तुत चित्र (केरल की एक संस्था :- निर्मला मेडिकल सेंटर) को ध्यान से देखें...
भारतीय परम्परा और संस्कृति में “सूर्यनमस्कार” का बहुत महत्त्व है, चित्र में गोल घेरे के भीतर यीशु का चित्र है, जबकि उसके चारों ओर सूर्य नमस्कार की विभिन्न मुद्राएं हैं। यहाँ तक कि क्राइस्ट का जो चित्र है, वह भी “भगवान बुद्ध” की मुद्रा में है. पद्मासन में बैठे हुए आशीर्वाद की मुद्रा में उठे हुए हाथ वाली प्रभु यीशु की तस्वीर, अभी तक कितने लोगों ने, कितने ईसाई ग्रंथों में देखी है?? लेकिन स्वयं अपने ही आराध्य को, अपने ही स्वार्थ (यानी धर्मान्तरण) के लिए तोड़-मरोड़ कर पेश करने जैसा कृत्य सिर्फ वेटिकन ही कर सकता है। क्योंकि “मकसद” हल होना चाहिए, चाहे उसके लिए कुछ भी करना पड़े. धर्मान्तरित हो चुके दलित ईसाईयों को ही यह सोचना चाहिए कि जो धर्म खुद ही इतना दिवालिया हो कि उसे अपनी बात कहने के लिए दूसरे धर्मों के प्रतीक चिन्हों व खुद के आराध्य को ही विकृत करना पड़ रहा हो, उस धर्म में जाकर उन्होंने गलती तो नहीं कर दी? क्योंकि निजी बातचीत में कई धर्मान्तरित ईसाईयों ने स्वीकार किया है कि ईसाई धर्म में “आध्यात्मिकता से प्राप्त होने वाली मनःशांति” नहीं है, जो कि हिंदू धर्म में है, और इसी कार्य के लिए उन्हें वापस हिंदू धर्म की परम्पराओं और प्रतीक चिन्हों को “Digest” (हजम) करने का उपक्रम करना पड़ता है। अमेरिका, जर्मनी और ब्रिटेन से धर्मान्तरण कार्य के लिए त्रिचूर आए हुए विदेशी पादरियों ने देवी-देवताओं की आराधना वाले भारतीय भजनों को हूबहू कॉपी-पेस्ट करके याद कर लिया है। अंतर सिर्फ इतना है कि जहाँ-जहाँ भगवान विष्णु का नाम आता है, वहाँ-वहाँ प्रभु यीशु कर दिया गया है, और जहाँ-जहाँ “देवी अथवा माता” का नाम आता है, वहाँ “मरियम” या “मैरी” कर दिया गया है।
यीशु की “महिमा” का बखान करने के लिए अक्सर आदिवासी क्षेत्रों में पादरी लोग देवी की पीतल की मूर्ति और हूबहू पीतल जैसी दिखने वाली लकड़ी की यीशु की मूर्ति को पानी में फेंककर उन्हें दिखाते हैं कि किस तरह “तुम्हारे भगवान” की मूर्ति तो डूब गई, लेकिन “यीशु” की मूर्ति पानी पर तैरती रही है. इसलिए जब भी कोई मुसीबत आएगी, तो “तुम्हारे प्राचीन भगवान” तुम्हें नहीं बचा पाएंगे, तुरंत यीशु की शरण में आ जाओ। इस “ट्रिक” को दिखाने से पहले ही चर्च का नेटवर्क उन इलाकों में दवाईयाँ और आर्थिक मदद लेकर धर्मांतरण की पृष्ठभूमि तैयार कर चुका होता है। दूरदराज के इलाकों में एक झोंपड़ी में मरियम “देवी” की मूर्तियाँ स्थापित करना, उस मूर्ति की हार-फूल से पूजा-अर्चना भी करना, दवाई से ठीक हुए मरीज को “यीशु” की कृपा बताने जैसे कई खेल चर्च इन अनपढ़ इलाकों में करता रहता है। अर्थात धर्मान्तरण के लिए वेटिकन में स्वयं के धर्म के प्रति इतना विश्वास भी नहीं है कि वे “अपनी कोई खूबियाँ” बताकर हिंदुओं का धर्मान्तरण कर सकें, इस काम के लिए उन्हें भारतीय आराध्य देवताओं और हिन्दू संस्कृति के प्रतीक चिन्हों पर ही निर्भर रहना पड़ता है. यह उनका अध्यात्मिक दिवालियापन तो है ही, साथ ही “बेवकूफ बनाने की क्षमता” का उम्दा मार्केटिंग प्रदर्शन भी है।
हिन्दू धर्म के प्रतीक चिन्हों को ईसाई धर्म में “हजम करने” (Digest) अर्थात शहरी पढ़े-लिखों को मूर्ख बनाने के प्रयास भी सतत जारी रहते हैं. पिछले कुछ वर्ष से दक्षिण के कान्वेंट स्कूलों में, भरत-नाट्यम और मोहिनी-अट्टम जैसे परम्परागत भारतीय नृत्यों पर जो बच्चे मंच प्रदर्शन करते हैं, उन नृत्यों में जो गीत या बोल होते हैं, वे यीशु के चमत्कारों की प्रार्थना के बारे में होते हैं, अर्थात आने वाले कुछ वर्षों में बच्चों के मन पर यह बात स्थापित कर दी जाएगी, कि वास्तव में भरत नाट्यम, प्रभु यीशु की तारीफ़ में किया जाने वाला नृत्य है. इसी प्रकार दक्षिण के कुछ चर्च परिसरों में “दीप-स्तंभ” स्थापित करने की शुरुआत भी हो चुकी है. क्या “दीप-स्तंभ” की कोई अवधारणा, बाइबल के किसी भी अध्याय में दिखाई गई है? नहीं| लेकिन चूँकि हिंदुओं को ईसाई धर्म की ओर आकर्षित करने के लिए जो मार्केटिंग तकनीक चाहिए, उसमें विशुद्ध ईसाई प्रतीक काम नहीं आने वाले, इसलिए हिन्दू प्रतीकों को, तोड़-मरोड़कर, विकृत करके अथवा उन प्रतीकों को ईसाई धर्म के मुकाबले निकृष्ट बताकर ही “मार्केटिंग” की जा सकती है। और यही किया भी जा रहा है। इसीलिए धर्मान्तरित होने के पश्चात उस पहली पीढ़ी के हिंदुओं के मूल नाम भी नहीं बदले जाते। राजशेखर रेड्डी का नाम हिन्दू ही बना रहता है, ताकि हिंदुओं को आसानी से मूर्ख बनाया जा सके इसी प्रकार धीरे-धीरे “अनिल विलियम” का पुत्र अगली पीढ़ी में “जोसेफ विलियम” बन जाता है, और एक चक्र पूरा होता है।
वास्तव में हकीकत यही है कि हिन्दू धर्म के मुकाबले में, चर्च के पास ईसाई धर्म को “शो-केस” करने के लिए कोई जोरदार सकारात्मक प्रतीक है ही नहीं। हिन्दू धर्म ने कभी भी “पुश-मार्केटिंग” के सिद्धांत पर काम ही नहीं किया, जबकि वेटिकन धर्मांतरण के लिए इस मार्केटिंग सिद्धांत का जमकर उपयोग करता रहा है, चाहे वह अफ्रीका हो अथवा चीन. जैसा कि हालिया सर्वे से उजागर हुआ है, पश्चिम में ईसाई धर्म के पाखंडी स्वभाव तथा आध्यात्मिक दिवालिएपन की वजह से “Atheists” (नास्तिकों) की संख्या तेजी से बढ़ रही है. चूँकि दक्षिण एशिया में गरीबी अधिक है, और हिन्दू धर्म अत्यधिक सहिष्णु और खुला हुआ है, इसलिए वेटिकन का असली निशाना यही क्षेत्र है।
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